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सिंध और महाराजा दाहिर सेन

 मुख्य विषय (toc)

दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है ये कि इतिहास के पन्नों में राजा दाहिर सेन को वो स्थान नहीं मिला जिसके वो अधिकारी थे। किन्तु भारतवर्ष की सातवीं और आठवीं सदी साक्षी रही इस परम प्रतापी राजा की जिन्होंने  679 ईस्वी में जब सिंध की राजसत्ता संभाली तो उनके सामने चुनौतियों का अंबार था। किन्तु सत्ता संभालने के बाद अपनी सूझबूझ और दूरदर्शिता से राजा दाहिर सेन इन चुनौतियों से पार पाने में सफल रहे। अपनी मातृभूमि की आन बान और शान की खातिर उन्होंने इस्लामी आक्रांताओं से दुश्मनी मोल ली और युद्धभूमि में उनको घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।

कश्मीरी ब्राह्मण वंश के थे राजा दाहिर

बीबीसी हिंदी की रिपोर्ट के मुताबिक सिंध सूबे में राजा दाहिर को भी सरकारी तौर पर हीरो घोषित करने की मांग ने जोर पकड़ लिया है। राजा दाहिर आठवीं सदी ईस्वी में सिंध के शासक थे. वो राजा चच के सबसे छोटे बेटे और कश्मीरी ब्राह्मण वंश के आखिरी शासक थे। 

 सिंध के प्रतापी राजा थे दाहिर सेन

सिंधु नदी के पूर्व में बसा सिंध। आज बेशक पाकिस्तान के हिस्से में है। लेकिन वैदिक काल में ये जगह हमारे ऋषि-मुनियों की तपोभूमि हुआ करती थी। मान्यता है कि वेदों की अलौकिक और कालातीत ऋचाओं की रचना सिंधु नदी के तट पर बसे सिंध के सुरम्य, मनोरम और पतितपावन वातावरण में हुई है. मान्यता ये भी है कि त्रेता युग में अवध के चक्रवर्ती महाराज दशरथ की पत्नी कैकेयी सिंधु देश की ही पुत्री थीं.  इसी सिंध क्षेत्र पर सातवीं शताब्दी के आखिरी दो दशक और आठवीं शताब्दी के शुरू के कुछ वर्षों तक एक परम प्रतापी,  प्रजापालक और नीतिज्ञ राजा का शासन था - नाम था दाहिर से।

 विडंबना से भरी गाथा है सम्राट दाहिर सेन की


जिस दाहिर सेन के पराक्रम और दिलेरी की गाथा हम आपको सुना रहे हैं वो विडंबनाओं से भरी हुई है। राजा दाहिर सेन ब्राह्मण पिता चच और क्षत्रिय माता सोहन्दी के पुत्र थे। चच से पहले सिंध पर क्षत्रिय राजा साहसी राय का शासन था। साहसी राय से पहले उनके पुरखे तकरीबन 600 सालों से सिंध पर राज कर रहे थे। लेकिन जब इतिहास को करवट बदलनी होती है तो विधाता कुछ रहस्यमय चाल चल देता है। साहसी राय की कोई औलाद नहीं थी लिहाजा उन्होंने अपने कश्मीरी ब्राह्मण मंत्री चच को ही अपना उत्तराधिकारी बना दिया। 632 ईस्वी में साहसी राय की मृत्यु के बाद चच राजा बना। दरबारियों से सलाह-मशविरे के बाद चच ने  सोहन्दी से शादी कर ली। 

 सिंध के तानेबाने में लगे दो तीर

राजा चच ने राज्य में कुछ गलतियों के चलते कुछ बड़े फैसले लिए जिसे कुछ लोग तंगदिल इंसान तथा अदूरदर्शी भी भी कहने लग गए थे। राजा बनते ही उसने सिंध के प्रमुख समुदायों लोहाणों, गुर्जरों और जाटों को उच्च पदों से हटा दिया। जाहिर है चच के इस कदम से लोहाण, गुर्जर और जाट नाराज हो गए। सिंध के सामाजिक ताने-बाने के सीने में ये पहला तीर साबित हुआ। इन सब के बावजूद राजा चच ने सिंध पर तकरीबन 40 वर्षों तक शासन किया.  इस दौरान मजबूत सैन्य शक्ति और युद्ध कौशल की वजह से उसने राज्य का विस्तार ही किया। 671 ईस्वी में चच की मृत्यु के बाद उसका भाई चंदर उत्तराधिकारी बना। राजा चंदर ने एक बड़ी गलती की। राजा बनते ही उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। इतना ही नहीं बौद्ध को अपना राज धर्म भी घोषित कर दिया। राजा चच ने लोहाणों, गुर्जरों और जाटों की नाराजगी मोल ली थी उसके भाई राजा चंदर ने बौद्ध को राजधर्म घोषित कर ब्राह्मणों को कुपित कर दिया.  सिंध के  सामाजिक ताने-बाने के सीने में चंदर का ये कदम दूसरा तीर साबित हुआ।

दाहिर ने प्रयास किया इन तीरों को निकालने का 

राजा चंदर ज्यादा समय तक शासन नहीं कर सका, 679 ईस्वी में उसकी मृत्यु के बाद चच के पुत्र दाहिर सेन ने सिंध की गद्दी संभाली। अपने शासनकाल में दाहिर ने सिंध की गौरवमयी धरती को पुरानी गरिमा से जोड़ते हुए खुशियों से भर दिया।  राजा बनते के बाद दाहिर सेन ने सिंध के सीने से उन तीरों को निकालने की कोशिश की, जो किसी और ने नहीं बल्कि उनके पिता और चाचा ने ही चलाए थे।  लेकिन दाहिर सेन को तो असली चुनौती मिली अरब के दुर्दांत आक्रमणकारियों से।  क्योंकि सिंधु के वैभव और ऐश्वर्य की दास्तां उन्हें नागवार गुजरने लगी थी। 

हिन्दू धर्म की पुनर्स्थापना की राजा दाहिर ने 

राजा दाहिर सेन के पिता चच ने सिंहासन पर बैठते ही सिंध की प्रमुख जातियों लोहाणों, गुर्जरों और जाटों को राजदरबार के महत्वपूर्ण पदों से हटा दिया था। दाहिर सेन ने राजकाज संभालते ही अपने पिता के इस गैरवाजिब फैसले को पलट दिया।  इन जातियों की मुख्यधारा में न सिर्फ वापसी की बल्कि उन्हें समुचित सम्मान भी दिया।  राजा दाहिर ने अपने चाचा राजा चंदर के फैसले को पलटते हुए बौद्ध की जगह हिन्दू को दोबारा से राजधर्म घोषित कर ब्राह्मणों की नाराजगी भी दूर कर दी।  दूरदर्शिता और उदारता ऐसी थी कि हिन्दू को राजधर्म घोषित करने के बाद भी ये संदेश दे दिया कि बौद्ध मत को मानने वालों को अपने विहार और मंदिर बनाने की पूरी आजादी होगी। 

समुद्री व्यापार-व्यवसाय का वर्धन किया 

प्रजा की खुशहाली को, राजा दाहिर सेन ने अपने अस्तित्व की शपथ बना ली. धर्म जाति के आधार पर किसी के साथ भेदभाव न हो, इसका वे पूरा ख्याल रखते थे।  लोकहित के फैसले लेने में कभी पीछे नहीं रहते थे दाहिर सेन।  लोकहितकारी नीतियों का असर ये हुआ कि सिंध के वैभव और ऐश्वर्य की ख्याति पूरी दुनिया में फैलने लगी, सिंध का देबल बंदरगाह उनके शासनकाल में व्यापारिक गतिविधियों का बड़ा केंद्र बन गया. सिंध के व्यापारी तो समुद्र मार्ग से दूर-दराज के देशों में व्यापार के लिए जाते ही थे ईरान-इराक और अरब देशों से आने वाले जहाज भी देबल बंदरगाह होते हुए ही अन्य देशों को जाते थे। 

अरबी व्यापारियों का हमला 

देबल बंदरगाह सिंध के लिए कितना महत्वपूर्ण हो गया ये इस बात से साफ हो जाता है कि राजा दाहिरसेन ने देबल का अलग से सूबेदार नियुक्त कर दिया. उन्होंने बौद्ध धर्मावलंबी ज्ञानबुद्ध को देबल की जिम्मेदारी सौंप दी. बौद्ध धर्म को मानने वाले ज्ञानबुद्ध को सूबेदार चुनने की गलती सिंध के इतिहास पर कैसे भारी पड़ी ये हम आपको बाद में बताएंगे. क्योंकि अभी राजा दाहिर सेन की कहानी एक अहम मोड़ से होकर गुजरने वाली है. हुआ ये कि देबल बंदरगाह पर एक बार एक अरबी जहाज आकर रुका.  जहाज में सवार अरबी व्यापारियों के सुरक्षाकर्मियों ने बिना वजह देबल शहर पर हमला कर दिया और कुछ औरतों और बच्चों को बंदी बना लिया. 

भड़के इस्लामी खलीफाओं ने कर दी चढ़ाई 

दाहिर सेन को जब ये पता चला कि उनके राज की महिलाओं और बच्चों को अरबी व्यापारियों ने बंदी बना लिया है तो उन्होंने तुरंत देबल के सूबेदार को जहाज पर धावा बोलने का हुक्म दिया... दाहिरसेन की शक्तिशाली सेना से व्यापारियों के सुरक्षाकर्मी भला क्या मुकाबला करते. महिलाओं और बच्चों को तो रिहा किया ही रुसवाई के साथ जान बचाकर देबल बंदरगाह से भी भाग खड़े हुए. मुस्लिमों के धर्मगुरु खलीफा को अरबी व्यापारियों और उनके सुरक्षाकर्मियों का सिंध की सेना से पिट कर आना बेहद नागवार गुजरा. व्यापारियों ने भी अपने गुनाह को छुपाते हुए इसे सिंध के सैनिकों द्वारा की गई लूटपाट की घटना के तौर पर पेश किया. खलीफा को लगा जैसे सिंध के फौजियों ने उसकी खिलाफत की शान में गुस्ताखी कर दी है. इतना ही नहीं सिंध फतह की हसरत भी जाने कब से खलीफाओं के मन में हिलोरे मार रही थीं. सिंध पर चढ़ाई का इससे अच्छा बहाना भला और क्या हो सकता था. 

खलीफाओं की सेना को पीट दिया दाहिर ने 

खलीफा ने तुरंत अपने मंत्री हजाज को सिंध पर आक्रमण का हुक्म दिया. खलीफा की हुक्मउदुली की हिमाकत उसका मंत्री हजाज भला कैसे कर सकता था. उसने तुरंत अब्दुल्ला नाम के सेनापति के नेतृत्व में अरब सेना को सिंध के लिए रवाना कर दिया. लेकिन  खलीफा और हजाज को क्या पता  था कि उनका मुकाबला किसी और से नहीं परमवीर दाहिरसेन से है. दाहिरसेन को अहसास तो पहले से ही था. सिंध की पावन धरती पर नजरें टेढ़ी करने की जुर्रत करने वाली अरब सेना को नेस्तनाबूद करने के लिए दाहिर सेन ने प्रतापी राजकुमार जयशाह की अगुवाई में हथियारबंद सेना को देबल बंदरगाह रवान कर दिया. देबल में सिंध और खलीफा की सेना के बीच घमासान हुआ. सिंध के शूरवीरों और  राजकुमार जयशाह की रणनीति के आगे अरबी सेना को घुटने टेकने पड़े. उनका सेनापति अब्दुल्ला मारा गया. देबल में युद्ध का मैदान खलीफा की सेना लाशों से पट गया. बाकी बचे सैनिक जान बचाकर सिंध से भाग खड़े हुए। 

बिन कासिम ने उठाया बीड़ा सम्राट दाहिर के खिलाफ 

खुद को अपराजेय समझने वाला खलीफा अपनी हार से तिलमिला उठा. सिंध फतह की उसकी ख्वाहिशों पर एक बार फिर वज्रपात हो गया. इंतकाम की आग उसके मन में भड़क उठी. हुलसते हुए उसने दरबार में मौजूद लोगों को ललकारा. क्या खलीफा की सेना में कोई ऐसा शूरवीर नहीं जो सिंध के छत्र को लाकर उसके कदमों में डाल सके. दरबार में मौजूद 17 साल के एक नौजवान मोहम्मद बिन कासिम ने खलीफा की चुनौती स्वीकार करते हुए हुंकार भरी कि मैं ये काम कर सकता हूं. उसकी इस हुंकार के बाद 10 हजार सैनिकों का एक दल ऊंट घोड़ों के साथ सिंध पर आक्रमण करने के लिए तैयार किया गया.

हिन्दुस्तान की तारीख के एक-एक पन्ने पर सूरमाओं की बहादुरी के किस्से दर्ज हैं, लेकिन उन्हीं पन्नों पर शूरवीरों की पीठ में खंजर भोंकने वाले दगाबाजों की शर्मनाक स्याह करतूतें भी गुजीदा हैं जिस सिंध की धरती पर 600 सालों तक राजपूत और ब्राह्मण राजाओं का शासन रहा उसका इतिहास दगाबाजी के खेल ने बदल दिया.

दग़ाबाज़ी ने भोंका पीठ पे खंजर 

हुआ ये कि खलीफा का हुक्म पाकर 17 साल का नौजवान मोहम्मद बिन कासिम ऊंट घोड़ों के साथ 10 हजार से ज्यादा सैनिक लेकर सिंध फतह के लिए रवाना हो गया. हम आपको बता चुके हैं कि 638 से 711 ईस्वी के बीच पूरे 74 सालों तक 9 खलीफाओं ने 14 बार सिंध फतह की कोशिश की लेकिन हर बार उन्हें युद्ध भूमि में सिंध के शूरवीरों के आगे मुंह की खानी पड़ी थी. मोहम्मद बिन कासिम इस सच को जानता था लिहाजा उसने चाल चली. देबल बंदरगाह के सूबेदार बौद्ध धर्म के अनुयायी ज्ञानबुद्ध को कासिम ने प्रलोभन दिया कि अगर वो इस युद्ध में खलीफा का साथ देगा तो जीत के बाद उसे सिंध का राजा बना दिया जाएगा. ज्ञानबुद्ध इस बहकावे में आसानी से आ गया.

वीर राजकुमारियों ने किया देशभक्तों का आवाहन 

उधर राजा दाहिर सेन ने अपनी सेना में जोश भरना शुरू कर दिया. गुर्जर, जाट और लोहाणों को सामाजिक राजनैतिक अधिकार पहले ही दे दिए गए थे. उन्हें सेना में भी शामिल किया गया. राजा दाहिर की दो वीरांगना बेटियों राजकुमारी परमाल और सूर्यकुमारी ने गांव-गांव जाकर सिंधी शूरवीरों को मातृभूमि की रक्षा करने का आह्वान किया. दोनों राजकुमारियों की प्रेरणा से सिंध के कई नौजवान मातृभूमि के लिए सर्वस्व न्योछावर करने के संकल्प के साथ सेना में भर्ती हो गए. 

सेना सुसज्जित हो चुकी थी. खलीफा के सैनिकों के देबल के निकट पहुंचने का समाचार मिलते ही राजा दाहिर ने राजकुमार जयशाह की अगुवाई में विशाल सेना रवाना कर दी. देबल के मैदान में दोनों सेनाएं आमने-सामने पहुंच गईं. रणभेरी बजते ही भयंकर घमासान शुरू हो गया. एक-एक सिंधी सैनिक दो-दो अरबी सैनिकों पर भारी पड़ने लगा. ऐसा लगा कि मोम्मद बिन कासिम जल्द ही आत्म-समर्पण कर देगा. लेकिन जैसा कि आपको पता है कि सूबेदार ज्ञानबुद्ध के रूप में दाहिर सेन की सैन्य कश्ती में पहले ही सुराख हो चुका था.

सूबेदार ज्ञानबुद्ध ने किया सम्राट के साथ विश्वासघात 

पूरे दिन चले युद्ध के बाद जब सैनिक अपने शिविरों में रात्रि विश्राम कर रहे थे तो मानवता के मुंह पर कालिख पोतते हुए सूबेदार ज्ञानबुद्ध ने देबल के किले के पिछले द्वार से खलीफा की सेना का प्रवेश करा दिया जिन्होंने युद्ध नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए सोए सैनिकों पर धावा बोल दिया. सिंधी सैनिक जबतक शस्त्र संभालते तबतक दुश्मन ने उनका कल्तेआम शुरू कर दिया. राजकुमार जयशाह इस हमले में गंभीर रूप से जख्मी हो गए. मजबूरन उन्हें देबल का किला छोड़कर जंगल की ओर भागना पड़ा.

धोखे ने बदल दिया आर्यावर्त का इतिहास 

बौद्ध सूबेदार ज्ञानबुद्ध तो पहले युद्ध का ये कहकर विरोध कर रहा था कि बौद्ध धर्म में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है लेकिन उसी ने अपनी मातृभूमि के सैनिकों के सामूहिक कत्लेआम की जमीन तैयार कर दी. इस उम्मीद में कि अगर खलीफा की जीत होगी कि सिंध के सिंहासन पर वो खुद आसीन हो जाएगा. हालांकि कहानी यही खत्म होने वाली नहीं थी. सिंध की राजधानी अलोर में बैठे राजा दाहिर सेन को जब ये मनहूस खबर मिली तो उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. अलोर के किले की जिम्मेदारी महारानी को सौंप कर उन्होंने तुरंत सेना की टुकड़ी तैयार की और युद्धभूमि के लिए कूच कर दिया. अपने परमवीर राजा को युद्ध भूमि में पहुंचने का सामाचार पाकर सिंधी सैनिकों में नए जोश का संचार हो गया. मैदान-ए-जंग में हाहाकार मच गया.  खलीफा के सैनिकों के पांव उखड़ने लगे.   

दुबारा फिर किया विश्वासघात

20 जून 712  हिन्दुस्तान के इतिहास में स्वर्णिम  अध्याय जुड़ने ही वाला था कि विश्वासघातियों ने एक बार फिर मातृभूमि को कलंकित किया. उन्होंने रावर नामक स्थान पर पहले से बिछाए विस्फोटकों में आग लगा दी. विस्फोट और आग देखकर हाथी, घोड़े और ऊंट बिदकने लगे. महाराजा दाहिर जिस हाथी पर सवार थे वो भी बिदक कर इधर-उधर भागने लगा. इसी बीच दुश्मन सेना की ओर से चला एक तीर सीधे उनकी आंखों में धंस गया. परमवीर दाहिर सेन आंखों में तीर लगने के बाद हाथी से गिर पड़े. कासिम की सेना तो जैसे इसी पल के इंतजार में थी. युद्धभूमि में जख्मी शेर की तरह गिरे राजा दाहिर पर अरबी सेना ने भेड़ियों की तरह हमला कर दिया. तीर, भालों, बरछों से उन्हें छलनी कर दिया. शेर की तरह लड़ते हुए राजा दाहिर वीरगति को प्राप्त हुए। 

वीरगति को प्राप्त हुए सम्राट दाहिर

राजा दाहिर की वीरगति का अशुभ समाचार सिंध के शूरवीरों पर बिजली गिरने जैसा साबित हुआ. प्रजापालक राजा की मृत्यु की खबर से सैनिकों का मनोबल टूट गया.  हिन्द के इतिहास को न चाहते हुए भी दगाबाजी के इस नामुराद पन्ने को अपने भीतर चस्पा करना पड़ा.

इस्लामी लुटेरे ने किया कत्लेआम और बलात्कार 

मोहम्मद बिन कासिम ने फतह के बाद उसे सिंध की सत्ता सौंपने का ख्वाब दिखाया था और इसी हसरत ने सिंध का सर्वनाश कर दिया.... छल और विश्वासघात से हासिल जीत के बाद खलीफा की सेना राजधानी अलोर में दाखिल हो गई और निर्दोष जनता का जमकर कत्लेआम किया.... मंदिरों शिवालों को तो तहस-नहस किया ही बौद्ध विहार और मठों में घुसकर निहत्थे बौद्ध धर्मावलंबियों को गाजर-मूली की तरह काट डाला... बच्चों और वृद्ध जनों को भी नहीं बख्शा...  संपत्ति लूट ली... नगर के नगर जला डाले, बलात्कार किया, हां जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया उन्हें जरूर बख्श दिया गया.

महिलाओं ने उठाये हथियार मुगलों के खिलाफ  

सिंध की जिस पावन भूमि पर हमारे मनीषी कभी वेद की ऋचाओं की रचना करते थे... वहां मानवता कराह उठी. इतिहास में कहीं तो इस बात का भी जिक्र है कि अरब के आतताई जब अलोर में घुसे तो वहां की वीरांगनाओं ने हथियारबंद होकर मोर्चा संभाला. लेकिन खूंखार और क्रूर अरबी सेना के आगे भोली-भाली महिलाएं भला कहां तक टिक पातीं. सिंध की रानियों को जब लगा कि अब खलीफा की सेना उन्हें बंदी बना लेगी तो सतीत्व और सम्मान की रक्षा के लिए उन्होंने जौहर कर लिया। 

दोनों राजकुमारियां हुई गिरफ्तार 

अरब के आक्रांताओं ने हैवानियत का नंगा नाच किया. लेकिन सिंध के सपूत मानवता का मरहम लगा लहूलुहान मातृभूमि के घाव भरने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे. राजा दाहिर सेन की दोनों बेटियां राजकुमारी परमाल और सूर्यकुमारी युद्ध भूमि में जख्मी सिपाहियों के उपचार की हरचंद मुहिम में जुटी थीं. इस बात से बेखौफ कि अगर मोहम्मद बिन कासिम के क्रूर सैनिकों ने पकड़ लिया तो उनका कितना भयावह हस्र होगा. वही हुआ भीम कासिम के दुर्दांत सैनिकों ने दोनों राजकुमारियों को बंदी बना लिया. रूपवती, शीलवान राजकुमारियों को बंदी बनाने के बाद कासिम के मन का शैतान जाग उठा. उसने राजकुमारी परमाल और राजकुमारी सूर्यकुमारी को बतौर तोहफा खलीफा के सुपुर्द करने का फैसला किया. इस तरह परमवीर राजा दाहिरसेन की दोनों बेटियां खलीफा के कब्जे में चली गईं.

राजकुमारियों ने लिया राजा दाहिर का प्रतिशोध 

मोहम्मद बिन कासिम ने तो ये नीच काम इसलिए किया कि खलीफा उससे बेइंतहा खुश होगा. और उसे कई राज्यों की बादशाहत अता फरमाएगा. पर उस नामाकूल को क्या पता था जिन राजकुमारियों को वो सिर्फ रूपवान, शीलवान, निरीह कन्या समझ रहा है वही उसके विनाश की इबारत लिख देंगी. राजकुमारी परमाल और सूर्यकुमारी को पता था कि उनके जीवन में अब कुछ भी शेष नहीं है. लिहाजा उन्होंने सिंध के साजिशकर्ताओं के खिलाफ एक खूबसूरत चाल चली. जब खलीफा के सामने पेश किया गया तो उन्होंने रोते हुए कहा कि कासिम ने आपके पास भेजने से पहले ही उनका शील भंग कर दिया था. अब तो खलीफा के मन में गुस्से का जलजला फूट पड़ा. उसने तुरंत कासिम को बंदी बनाकर खुद के सामने पेश करने का फरमान सुनाया.

मारा गया राजा दाहिर का अपराधी 

खलीफा का हुक्म पाकर उसके भरोसेमंद सैनिक तुरंत कासिम को गिरफ्तार  करने के लिए निकल पड़े. कासिम के पास पहुंचकर उन्होंने खलीफा का फरमान उसे सुना दिया. खलीफा की हुक्मउदूली की जुर्रत भला वो कैसे कर सकता था. उसने तुरंत आत्मसमर्पण कर दिया. इतिहास में कहीं-कहीं ये लिखा है कि खलीफा के दरबार में जब उसे पेश किया गया तो उसने उसे सजा-ए-मौत दे दी. कहीं ये भी जिक्र आता है कि खलीफा के सैनिक उसे चमड़े के बैग में भर कर ला रहे थे और रास्ते में ही घुटन की वजह से उसने दम तोड़ दिया. 

कासिम की मौत के बाद खलीफा को सच्चाई भी पता लग गई कि सिंध की राजकुमारियों ने उससे झूठ बोला था... लिहाजा उनपर वो आगबबूला हो उठा लेकिन अमर बलिदानी दाहिर सेन की बेटियां तो सिंध के गुनहगार को सबक सिखाने भर के लिए जिंदा थीं. कहते हैं कि इसके बाद दोनों ने अपने पास छुपाकर रखे खंजर एक दूसरे के सीने में उतारकर जीवन खत्म कर दिया. इस तरह सिंध की बेटियों ने न सिर्फ अपने अस्मत की रक्षा की बल्कि प्राणोत्सर्ग से पहले कुकर्मी कासिम का खात्मा भी कर दिया.






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